गुजरात का ये छोटा सा गांव सब देश में अपनी कला एक्सपोर्ट करके कमा रहे हे डॉलर
भुज (गुजरात)। मौजूदा दौर में जहां कई पारंपरिक शिल्प अपना अस्तित्व
बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर गुजरात के कच्छ में बसा
अज्रखपुर नामक छोटा सा गांव घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय खरीदारों को अपने
प्राकृतिक चटख रंगों से रंगे ब्लॉक ङ्क्षप्रट कपड़ों से लुभा रहा है।
इस प्रिंट को अज्रख के नाम से जाना जाता है, जिसे बनाने में काफी समय व परिश्रम लगता है और यह एक लंबी प्रक्रिया है। गांव के सौ से अधिक परिवार इस शिल्प से जुड़े हुए हैं, जिसके बाद उच्चतम कोटि का कपड़ा तैयार होता है, और फिर इस पर फैशन की शीर्ष कंपनी का लेबल लगता है।
एक शिल्पकार को डिजाइन सिखाते हुए सूफियान ने कहा, ‘‘प्राकृतिक रंगों के माध्यम से पारंपरिक अज्रख प्रिटिंग 16 चरणों की प्रक्रिया है। इसमें 14 से 21 दिनों का समय लगता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि इसमें कितने रंग होंगे और ब्लॉक प्रिंट के कितने स्तरों का इस्तेमाल किया जाएगा।’’
कपड़ों को डाई करने से पहले उन्हें पानी में पूरी रात भिगोया जाता है, ताकि उनमें से अतिरिक्त स्टार्च निकल जाए। इसके बाद उन्हें धूप में सुखाया जाता है। सूखने के बाद उन्हें मयोब्रालम रंग से रंगा जाता है, जिसके बाद फिर से उन्हें धूप में सूखने के लिए रख दिया जाता है।
इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद शिल्पकार पारंपरिक डिजाइनों वाले लकड़ी के ब्लॉक को चुनते हंै और फिर उन्हें गोंद की सहायता से सावधानीपूर्वक कपड़ों पर चिपकाया जाता है।
अज्रख प्रिंटिग में कपड़े पर ब्लॉक रखने के बाद उसे दबाकर रखना होता है। इसी प्रकार शिल्पकार ब्लॉक्स को चुनते हैं, उन्हें रंगते हैं और सावधानीपूर्वक उन्हें कपड़ों पर रखकर दबाया जाता है। यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद कपड़ों को धोकर धूप में सुखाया जाता है।
कपड़ों मे इस्तेमाल होने वाली सभी रंग प्राकृतिक तरीके से बनाए जाते हैं। अज्रख को अरबी भाषा में इंडिगो कहा जाता है, जिसका अर्थ नील का पौधा होता है। यह पौधा 1956 में कच्छ में आए भूकंप से पहले तक इलाके में हर तरफ दिखता था। लेकिन, कुछ शिल्पकारों की मानें तो अज्रख शब्द ‘आज रख’ से आया है।
इमली के बीज और फिटकरी से लाल रंग बनाया जाता है। हल्दी से पीला रंग बनाया जाता है और चूने का इस्तेमाल सफेद रंग बनाने के लिए किया जाता है। अनवर ने कहा, ‘‘परंपरागत रूप से अज्रख प्रिंटिग केवल प्राकृतिक रंगों से ही की जाती थी, लेकिन अब सस्ती किस्म की मांग के चलते इसमें कृत्रिम रंगों का भी इस्तेमाल किया जाता है। कृत्रिम रंगों से की गई प्रिंटिंग में कम समय लगता है।’’
उन्होंने बताया कि कृत्रिम प्रिंटिंग से एक साड़ी के तैयार होने में दो दिन का समय लगता है। जब कभी माल की ज्यादा मांग होती है, तो इसी का इस्तेमाल किया जाता है। कृत्रिम रंगों से तैयार किए गए कपड़े की कीमत 50 से 60 रुपए प्रति मीटर होती है, पर यदि कपड़े में अनोखे डिजाइन का प्रिंट किया गया है, तो उसकी कीमत 100 रुपए प्रति मीटर तक जा सकती है।
अज्रख की कहानी हमेशा से इतनी रंगारंग नहीं थी। इन शिल्पकारों के जीवन में भी एक बुरा समय आया था, जब सभी शिल्पकारों को अपना सब कुछ छोडक़र दूसरी जगह जाना पड़ा और जीवन जीने के लिए फिर से सभी संसाधनों को झोंककर सबकुछ दोबारा शुरू करना पड़ा।
सूफियान ने बताया, ‘‘आज हमारे शिल्प की बाजार में बहुत मांग है। तरुण तहलियानी जैसे डिजाइनर ने मेरे साथ काम किया है। डिजाइनर्स के आमंत्रण पर मुझे अलग-अलग जगह जाकर अपनी कला दिखाने के मौके मिले। आज दुनिया के बड़े-बड़े डिजाइनर हमारी कला के बारे में जानना चाहते हैं।’’
अनवर ने बताया कि डिजाइनर इंस्टीट्यूट से बहुत से बच्चे उनकी कला को सीखने के लिए आते हैं। दुनियाभर के सभी कारीगर उनकी प्रदर्शनी देखने आते हैं।
उन्होंने कहा कि उनका यह काम किसी भी मौसम में रुकता नहीं है, चाहे सर्दी हो या गर्मी। उनका यह काम अप्रैल महीने की तेज गर्मी में भी चलता रहता है, क्योंकि काम करने के लिए यह सबसे अच्छा समय होता है।
वर्कशॉप में
काम करने वाले अनवर के भतीजे ने बताया कि हमारी कारीगरी ही हमारे लिए सबकुछ
है। हमारी यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही है। लोगों का अज्रख के
प्रति प्यार ही हमारे लिए सबसे बड़ा तोहफा है।
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